धुआं (Dhuaan)
Mar 04, 2017
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ग़र्द उड़ाते उन पहियों को
हर सांझ हथेली मार - मार
सड़कें जो नापी सब ने ;
उस धुएं में छुपे
सत्य की परवाह थी क्या किसे ?
.
ढलते उसी वक्त में
चूल्हे में गोयठे सुलगाती
हज़ारों बार आँखें सेंकी ;
उन अगणित माताओं के
नयनों की परवाह थी क्या किसे ?
.
उन्मुक्त मित्र-मंडलियों संग
जब धुएं में विलुप्त अंतर्मन
फिरदौस की सैर हम करते ;
तब दिल में उस बुझते
प्रेम की परवाह थी क्या किसे ?
.
मसान के मंदभाग्य भूमि पे
पिता से अंतिम सीख लेते
जब धुएं-स्वरुप अलोप रहा बचपन;
तब घर में छूटे आखिरी
निवाले की परवाह थी क्या किसे ?